Tuesday, 28 July 2015

YAKUB MEMON: NOT DESERVING CAPITAL PUNISHMENT,ALSO NOT INNOCENT BEYOND ALL REASONABLE DOUBTS

As per the request made by the learned facebook friend Dr Bhanu Pandey,son of former Member of Parliament Late Sarjoo Pandey to light into the case of Yakub Memon, i submit my observations.
In view of provisions contained in section 8 of the Indian Evidence Act,1872 four things motive, preparation and previous or subsequent conducts of an accused should be taken into account to decide the nature of the case and the quantum of sentence against the accused, if the prosecution has been able to prove allegations beyond all reasonable doubts. Firstly, it ought to be observed whether prosecution has been able to prove allegations beyond all reasonable doubts before deciding as to the nature of the case and the quantum of sentence.
Questions raised in pros and cons in Yakub Memon's case are conflicting each other. Subsequent conducts of this Memon that he preferred to come India at his own volition, made his family members to come, he submitted a lot of documentary evidences against ISI and Dons including Dawood and his brother Tiger Memon and helped in enquiry don't necessarily mean that Yakub Memon was innocent beyond all reasonable doubts. On the other, we can't prove him quite guilty beyond all reasonable doubts without crossing these above facts and questions .
Such conflicting nature of facts need to be dealt with a medium way. In general nature of doubts, there is only the provision in the favour of the accused to acquit the accused on the ground of benefit of doubt, but there is no special provision for the conflicting nature of doubts. Sole provision of benefit of doubt in the law amounts to misuse of law. Sometimes making real culprit to be acquitted on benefit of doubt, sometimes making accused to undergo heavier punishment because of the absence of dealing with medium way.
Motive, preparation (manner of occurrence) and previous conducts shown by the prosecution against this accused are as such, making him to deserve death penalty, but subsequent conducts are quite conflicting against the former facts. In such circumstances, accused must not deserve either heavier punishment or benefit of doubt, but deserve medium way of punishment.
In fact, medium way of punishment must be treated as a new legal principle in course of deciding as to the facts raised in cases like Yakub Memon's Case. Accordingly, Yakub Memon doesn't deserve dealth penalty. He undoubtedly deserves any such penalty which should be medium like life time imprisonment and then pardon of imprisonment after 14 years. Since Yakub Memon has been behind bars for last 20 years, he must now be released and kept under the supervision of security guards, which is literally called house arrest.
Subsequent conducts, which are conflicting to the facts shown by prosecution, are the sufficient ground in the present case to grant mercy.
Schizophrenia as a mental illness has been held by the Supreme Court in Shatrughan Chauhan vs Union of India,(2014) 3 SCC 1 Para-86-87 to render a convict unfit for execution. Further, lack of giving opportunity of hearing to the convicted before issuance of death warrant makes the death warrant void in light of the Supreme Court decision in Shabnam vs Union of Indian and Ors, Writ Petition(Criminal) No-88 of 2015,decided on 27 May 2015.However,a fresh death warrant may be issued after giving opportunity of hearing. Both are other and secondary grounds in this case to grant interim mercy from execution till the time of becoming mentally sound of Yakub Memon or till the time of issuance of a fresh death warrant, which apply not only for this case, but for all such cases. On the ground of subsequent conflicting conducts final mercy must be granted.

Saturday, 25 July 2015

विदेश में प्रचलित 'वी कंसेंट' ऐप की भारत में प्रासंगिकता

विदेश में प्रचलित 'वी कंसेंट' ऐप की भारत में प्रासंगिकता
ये सत्य है कि बलात्कार का तीन-चौथाई से भी ज्यादा आरोप झूठा होता है। स्त्रीवादी लोग जबरन गलत आरोप को भी सही बना देते हैं।
रही बात 'वी कंसेंट' ऐप की तो इसका मुख्यतः दुरुपयोग ही होगा लेकिन इस तरह के ऐप के सामने शारीरिक संबंध बनाने के लिए सहमति देने का भारतीय विधि-शास्त्र में कोई महत्व नहीं है।क्योंकि IPC का धारा 90 के तहत ऐसे किसी भी सहमति को सहमति नहीं माना जाता है जो डर के कारण दिया जाता है।इसलिए यदि 'वी कंसेंट' जैसे ऐप के सामने दी गई सहमति को पीड़िता ये सिध्द कर देती है कि उसने डर से सहमति दी थी तो ऐप के सामने सहमति का कोई महत्व नहीं होगा।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम,1872 में वर्ष 2013 में धारा 114A को दुरुपयोग करने के लिए जोड़ा गया जिसमें प्रावधान किया गया कि यदि महिला कहती है कि उसने शारीरिक संबंध बनाने के लिए सहमति नहीं दी थी तो कोर्ट यही Presume करेगा कि उसने सहमति नहीं दी थी,भले ही बगैर डर का स्वेच्छा से सहमति देने के बावजूद महिला झूठ बोल रही हो।'वी कंसेंट' ऐप तो इतना जरुर सिध्द कर देगा कि उसने सहमति दी थी।डर के कारण सहमति दी थी,ये सिध्द करना पड़ेगा।

वी कंसेंट ऐप अमेरिका में स्मार्ट फोन के लिए डेवलप किया गया एक ऐप है जिसमें शारीरिक-संबंध बनाने से पहले पुरुष और महिला का एक साथ बीस सेकंड का वीडियो रिकाड किया जाता है,जिसमें संबंध बनाने के लिए सहमति होने पर दोनों हाँ बोलते हैं।इससे सहमति लेने के लिए हाँ बोलने से पहले कोई भय दिखाने का पता नहीं चलता है।
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Facebook Post of July 17,2015-
रिपोर्ट करने के बाद Sexually Explicit कंटेन्ट अपडेट करने वाले एक फेसबुक पेज को फेसबुक ने हटा दिया है।इस पेज के लगभग 150 लाइक्स हो चुके थे।सरकारी सेवा में नियोजित एक मित्र द्वारा इस पेज के एक फोटो में मुझे टैग कर दिया गया था जिसके साथ आपत्तिजनक शब्द भी लिखे थे।इस पोस्ट में दिए लिंक को क्लिक करने पर अश्लील वीडियो का वेबसाइट खुल रहा था।इस मित्र ने ऐसे एक अन्य पेज के एक फोटो में भी टैग कर दिया था जिसमें फोटो और पेज दोनों को रिपोर्ट करने के बाद फेसबुक ने फोटो को हटा दिया लेकिन पेज को नहीं हटाया,जबकि उस पेज के सारे फोटो पहले वाले फोटो की तरह ही थे।ऐसे एक तीसरे पेज को भी रिपोर्ट किया लेकिन फेसबुक ने नहीं हटाया।
इन दोनों पेज को नहीं हटाने का कारण शायद ये रहा होगा कि इन पेज पर जो लिंक्स दिए गए थे,उसे क्लिक करने पर अश्लील वीडियो का वेबसाइट नहीं खुल रहा था।
पूर्व में फेसबुक मेरे द्वारा रिपोर्ट करने पर चार अश्लील वीडियो को भी हटा चुका है।
इस मित्र को मुझे ब्लॉक कर देना चाहिए था लेकिन इस आधार पर छोड़ दे रहा हूँ कि ये विभागीय व कानूनी समास्या पड़ने पर मुझसे समाधान के लिए सलाह लेते रहे हैं।सुधरने का एक मौका दे रहा हूँ।

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मुलायम सिंह यादव के विरुध्द धमकाने का FIR दर्ज करने के लिए वरिष्ठ IPS अमिताभ ठाकुर द्वारा थाना में तहरीर देने के कुछ घंटे बाद अमिताभ ठाकुर और उनके पत्नी नूतन ठाकुर के विरुध्द रेप का फर्जी FIR दर्ज करना कानून को रखैल समझकर दुरुपयोग करने के लिए कानूनी-संरक्षण के विरुध्द कई सवाल खड़े करते हैं।मेरी जानकारी में भारतीय साक्ष्य अधिनियम,1872 में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो इसका व्याख्या करता हो कि 6 महीना पहले या काफी पहले कि कथित घटना को लेकर सुसुप्त पड़ गए तथाकथित पीड़ित/पीड़िता अभियुक्त द्वारा किसी के विरुध्द आवाज उठाने के बाद एकाएक कुछ घंटे या कुछ दिन के भीतर FIR दर्ज कराते हैं या पुलिस द्वारा पहले आरोप को गलत मानकर FIR नहीं करके अब तुरंत FIR कर लिया जाता है तो ऐसे आरोप को झूठा Presume किया जाए।
इसे हम Presumption as to false charges in certain circumstances on ground of back allegation having afterthought motive कह सकते हैं।यदि ऐसा प्रावधान हो जाए तो अमिताभ ठाकुर और नूतन ठाकुर जैसे व्यक्ति के विरुध्द फर्जी FIR दर्ज कर परेशान नहीं किया जा सकेगा और मुलायम सिंह यादव जैसे पुरुषवादी लठैत कानून को रखैल नहीं बना पाएंगे।

फ्रेश RTI नियमावली बनाने की राज्य सरकार से सिफारिश करने के लिए राज्य सूचना आयोग को परिवाद

RTI Act,2005 के तहत उत्तर-पुस्तिका प्रदान करने के लिए बिहार सरकार के विभिन्न सरकारी कार्यालयों द्वारा अलग-अलग व मनमाना शुल्क लेने के विरुध्द एक समान शुल्क लेने के लिए एक फ्रेश नियमावली बनाने की राज्य सरकार से सिफारिश करने के लिए राज्य सूचना आयोग को परिवाद भेजा है।RTI Act,2005 की धारा 25(5) के तहत राज्य सूचना आयोग राज्य सरकार से सिफारिश कर सकती है और राज्य सरकार अधिनियम की धारा 27 के तहत नियमावली बना सकती है।
ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय,दरभंगा द्वारा उत्तर-पुस्तिका की छायाप्रति प्रदान करने के लिए दो हजार रुपये मांगा गया,वहीं बिहार बोर्ड द्वारा 100 रुपये प्रति उत्तर-पुस्तिका के अतिरिक्त दो रुपये प्रति पेज मांगा गया।मौजूदा RTI Rules के अनुसार दो रुपये प्रति पेज की दर से छायाप्रति देना है और सुप्रीम कोर्ट ने Central Board Of Secondary Education & Anr vs Aditya Bandopadhyay & Ors,(2011) 8 SCC 497 में उत्तर-पुस्तिका की छायाप्रति RTI Act के तहत देने का फैसला दिया है।
इसलिए ये आवश्यक है कि उत्तर-पुस्तिका की छायाप्रति कैसे प्रदान किया जाए,इसके लिए फ्रेश नियमावली बनाए जाए जिसमें खोजने का न्यूनतम शुल्क भी शामिल कर लिया जाए क्योंकि उत्तर-पुस्तिका जांच में गड़बड़ी करने के कारण ये संस्था दो रुपये प्रति पेज की दर से छायाप्रति देना नहीं चाहते और ज्यादा शुल्क रखा है ताकि लोग ज्यादा शुल्क के कारण उत्तर-पुस्तिका प्राप्त नहीं कर गड़बड़ी का खुलासा नहीं करे।विश्वविद्यालय के कुलपति ने फोन पर परीक्षा बोर्ड का फैसला बताकार दो हजार रुपये से कम करने से मना कर दिया और कुलपति कार्यालय में शिकायत दायर करने के बाद पुनः लोक सूचना अधिकारी ने पत्र भेजा और उन्होंने परीक्षा विभाग द्वारा निर्धारित शुल्क जमा करने वाला अपने पिछले जवाब को सही बताया।
यदि राज्य सूचना आयोग सिफारिश करती है तो ये एक ऐतिहासिक फैसला होगी,जिसका दुरगामी परिणाम भी होगा।जैसे,जिला अभिलेखागार,दरभंगा और अपर समाहर्ता,दरभंगा दोनों ने RTI Act के तहत दस्तावेज का छायाप्रति प्रदान करने से मना कर दिया है और कार्यालय में चिरकुट (APPLICATION FOR COPY) दाखिल कर दस्तावेज की छायाप्रति लेने कहा है।
जिस कार्यालय में चिरकुट दाखिल करने का प्रावधान है,वहाँ प्रायः RTI Act के तहत छायाप्रति नहीं दिया जाता है,जबकि ये कार्यालय भी RTI Act के तहत आते है,क्योंकि चिरकुट दाखिल कर छायाप्रति लेने पर ये लोग मनमानी रुपये वसूलते हैं और RTI में इनकी वसूली नहीं हो सकती।एसडीएम,दलसिंहसराय ने भी RTI आवेदन भेजने पर चिरकुट दाखिल कर छायाप्रति प्राप्त करने कहा था,लेकिन मैंने जब उन्हें पत्र भेजकर कहा कि RTI Act के तहत उन्हें दस्तावेज देना ही पड़ेगा तो फिर दस्तावेज दिया गया।
यदि उत्तर-पुस्तिका मामले में सिफारिश कर दी जाती है तो फिर चिरकुट मामले में भी सिफारिश करने के लिए परिवाद दायर करुँगा क्योंकि इसके लिए भी एक फ्रेश नियमावली बनाने की आवश्यकता है।चिरकुट दाखिल करके छायाप्रति प्राप्त करने का जो निर्धारित शुल्क है,RTI Application दाखिल करके छायाप्रति प्राप्त करने का भी वहीं शुल्क कर देना चाहिए जो Present RTI Rules के तहत भुगतान का निर्धारित विधि पोस्टल आर्डर/ड्राफ्ट आदि से भेजा जाए।






Tuesday, 7 July 2015

Suppression Of a Landmark Judgement by the Govt

Arbind Kumar Choudhary and Anr vs The State of Bihar and Ors,CWJC No-15594 of 2013,finally decided by the Patna High Court on 11/3/2015 must have been one of the most landmark order in the history of Indian Courts,but prima facie somehow appears to be the imposition of censorship by the Govt of Bihar against the law websites to not publish this order.

Perhaps,this order is not available on any law website,but the irregularities committed in a non-governmental recognised sanskrit school namely Bharti Sanskrit High School,Kalyanpur Basti,Samastipur in course of appointments of its Acting Head Master and one Clerk by the Ad hoc Committee of the school and thereafter approval of same by the Bihar Sanskrit Shiksha Board due to absence of statutory provisions made the court to direct the govt to frame a definite rules in respect of appointments and constitution of the Managing Committee for all sanskrit schools, ultimately the rules notified in Bihar Gazette on 26/2/2015.

Dispute in a school changed the rules.

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Facebook Status Of 20 June 2015-

मेरा क्लासमेट बमशंकर झा ने एक बार फिर फंसाने की साजिश रची।इस बार उसने Nirali Priyadarshini Dasaut नाम से फेसबुक एकाउंट बनाकर मुझे मैसेज करके खुद को रेप विक्टिमबताकर रेप से लड़ने के लिए वकील बनने और रेप से लड़ने के लिए मेरा मदद मांगने समेत महिला अधिकार की बात कर मुझे भावनात्मक ब्लैकमेल कर उस कथित निराली के प्रेम-जाल में फंसाने की साजिश रची।वैसे,मैं फंसने वाला नहीं था।मुझे बमशंकर पर संदेह इसलिए हुआ क्योंकि वह एक रेप पीड़ित महिला के बारे में मुझे बता चुका था जिसने वकील बनकर रेप आरोपी को सजा दिलवाई थी,उसने अपने टिप्पणी में बाहरी सुन्दरता को नकारते हुए प्रकृति पर जोर दिया,जैसा मैं बमशंकर को बोला करता था और उसका डेरामेट बाबू साहब शर्मा समेत अमितभाईजी,राजाजी,जग्गूजी उसके फ्रेन्ड लिस्ट में थे और बमशंकर ही इन सभी को जानता है।जब मैंने कॉल करने कहा तो उसने मना कर दिया।मैंने रेप का शिकायत भेजने कहा लेकिन नहीं भेजा।फिर मैंने बमशंकर को फोन करके कहा कि निराली नाम का एकाउंट उसी का है तो कुछ घंटे बाद ही बमशंकर ने मुझे एक लड़की से फोन करवा दिया जो खुद को निराली बताने लगी लेकिन नंबर बमशंकर के नाम से मेरे मोबाइल में पहले से ही सेव था।बमशंकर ने कभी इस नंबर से मुझे फोन किया था,इसलिए सेव कर लिया था।कथित निराली द्वारा फोन करने के बाद जब मैंने पुनः इस नंबर पर फोन किया तो बमशंकर का एक डेरामेट ने फोन उठाया जिसने कहा कि वह कमरा में मोबाइल छोड़कर चला गया था और बमशंकर ने ही मोबाइल लेकर लड़की से बात करवाया होगा।बमशंकर झा बोल रहा है कि उसका डेरा या डेरा में बाहर से आने वाला कोई लड़का उसको फंसाने का चाल चल रहा है और उसी ने ये सब किया है।लेकिन सारे साक्ष्य बमशंकर के खिलाफ है और उसका डेरामेट जिसके नंबर से लड़की ने फोन किया,उसकी भूमिका भी संदिग्ध है।किसी तीसरे की चाल बताकर खुद को बचाने की कोशिश कर रहा है।तीसरे का कोई मंशा भी नहीं दिखता और ना ही तीसरे के खिलाफ कोई साक्ष्य है।


Facebook Status Of 22 June 2015-
कुछ मित्रों का कहना है कि मेरा एक क्लासमेट द्वारा जो साजिश रची जा रही,उसे फेसबुक पर अपडेट नहीं करना चाहिए था और आपस में सुलझा लेना चाहिए था।
मेरा वो क्लासमेट मेरे फ्रेन्ड लिस्ट के कई फ्रेन्ड का फेसबुक फ्रेन्ड बन गया है।अपडेट करने का सबसे बड़ा मकसद है कि जिन मित्रों का मेरा वो क्लासमेट फ्रेन्ड बना है,उससे वैचारिक व सामाजिक रुप से दूर रहे।वो आपसे भी नजदीकी बनाकर आपके विरुध्द भी साजिश रच सकता है।कुछ मित्रों को कन्फ्यूजन हो रहा है कि उसी क्लासमेट ने ही साजिश रचा है या नहीं।किसी लड़की के साथ अपने कमरे में बंद करने की उसकी योजना के बारे में उसने खुद स्वीकारा है,जिसका मेरे पास रिकाडिंग भी है।लड़की के नाम से फेसबुक एकाउंट बनाकर मुझे फंसाने की साजिश रचने के आरोप को वो नहीं स्वीकार रहा है,बल्कि इसे अपने किसी करीबी का चाल बता रहा है,लेकिन सारे तथ्य मेरा उस क्लासमेट के ही खिलाफ है और एक भी तथ्य किसी तीसरे के खिलाफ नहीं है।बगैर तथ्य का तीसरे पर आरोप फेंकना शातिर अपराधी की पहचान है और ऐसे दलील को स्वीकार करना अंधेर नगरी,चौपट राजा वाली कहानी की तरह है।
जो मित्र आपस में सुलझाने का सलाह दे रहे हैं,आग्रह है वो खुद सुलझा दे।


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Hacking is punishable offence u/s 66 of the Information Technology Act,2000 which provides punishment upto three years or fine upto 2 Lakhs rupees or with both.If hacking is committed,then there is almost the unauthorised access to the account of others after using password and username and fraudulently using password and username is punishable u/s 66C of the IT Act upto three years and with fine upto one lakhs.Instead of using the term 'or',the term 'and' is used,showing that fine is mandatory u/s 66C of the act.
In most of the cases,police refuse to register the FIR by making excuse to move to Cyber Crime Cell,but it is evident from the provisions contained u/s 78 and 80 of the act that the Deputy Superintendent of Police has been conferred special powers.Section 78 mandates that any offence under this act shall be investigated by the officer not below the rank of the DSP and section 80 provides that the DSP shall have the power to enter into place,search and arrest without warrant.
Procedures regarding how to grab and identity cyber offenders with the use of tools and technologies have not been provided in the IT Act and it is a great fault.As per the provisions,it is evident that the police station must register FIR and after registering FIR,same must be forwarded to the DSP for investigation and further actions,but i think,it is better to move cyber crime cell as they are equipped with tools and technologies.