Sunday, 29 May 2016

KANHAIYA KUMAR IS NOT A HERO


KANHAIYA KUMAR IS NOT A HERO
Previously i have updated two status pertaining to Sedition Charge against Kanhaiya and his consequent arrest.Going through various judgments of the Supreme Court of India and the Supreme Court of the United States,i observed that Sedition Charge is not made out as per contents of FIR and also observed that arrest of Kanhaiya was illegal.I still stand with my observations.Expulsion in the nature of disciplinary measure has been recommended against him and others by the Inquiry Committee of JNU,which i think unfair and unjust.
He is the victim of "Terror Of Law" but he is not a hero.Though being a victim of "Terror Of Law",he is not an advocate of "Rule Of Law."
"Rule Of Law" can never be established by participating in such programme which was prearranged to assemble for sloganeering in favour of Afazal Guru and Maqbool Bhat.Those who endeavour towards establishing "Rule Of Law" can only be hero.
I am not in a position to state execution of Afzal Guru and Maqbool Bhat wrong or right.But i am in a position to state that sloganeering is not a proper act (However also not a criminal act) to protest against execution of Afzal Guru and Maqbool Bhat.If any segment of society are dissatisfied from the execution, they ought to strive towards Judicial Review of the matter by "the Whole Judges Bench" of the Supreme Court.If the Supreme Court refuses to review by the Whole Judges bench or people are aggrieved by the reviewed decision,then they should endeavour towards "Open Public Judicial Review."
"Open Public Judicial Review"may be referred as "Judicial Referendum." Those who want to vote,may cast vote with their judicial opinions leading to their conclusion in Pros And Cons of Afzal Guru and Maqbool Bhat.Voting without judicial opinions shall not be entertainable because it's not only a referendum,it's a judicial referendum.Decision will be taken on the basis of Majority of voting with judicial opinions.It's a concept of pronouncing Judgment in a democratic way.We only elect our representatives by voting in a democratic way.We don't pronounce judgments in a democratic way by voting with judicial opinions.


JNU CASE:SEDITION CHARGE IS NOT MADE OUT AS PER FIR CONTENTS
ये तस्वीर कन्हैया कुमार,उमर खालिद और अन्य के विरुद्ध दिल्ली पुलिस द्वारा की गयी FIR का है।
This is in reference of my previous facebook status and link of same is given below-
FIR जी न्यूज से प्राप्त वीडियो फूटेज के आधार पर की गयी है और फूटेज के आधार पर FIR में दर्ज नारेबाजी इस प्रकार है-
"अफजल की हत्या नहीं सहेंगे,नहीं सहेंगे।कितने अफजल मारोगे,घर-घर में अफजल रहते हैं।घर-घर से अफजल निकलेंगे।कश्मीर के नौजवान संघर्ष करो,हम तुम्हारे साथ हैं।हल्ला बोल,हल्ला बोल,लाल चौक पर ऊँचा बोल।कितने मकबूल मारोगे,घर-घर से मकबूल निकलेंगे।सजाए मौत को रद्द करो।हक हमारा आजादी,लड़ कर लेंगे आजादी।पाकिस्तान जिन्दाबाद।"
पुलिस ने आयोजन स्थल से कार्यक्रम का पोस्टर बरामद किया है जिसमें लिखा है-
"The country without a post office. The struggle of people against power is struggle of memory against forgetting."
The print on the back of the poster
said, "Against the Brahmanical
collective conscience, against the
judicial killing of Afzal Guru and
Maqbool Bhat, in solidarity with
struggle of Kashmiri pople for their
democratic rights to self-
determination, we invite you for a
cultural evening of protest with poets,artists, singers, writers, students,intellectuals and cultural activists."
पिछले स्टेटस में मैंने सुप्रीम कोर्ट द्वारा Balwant Singh & Anr vs State Of Punjab,1995(1) SCR 411 में दिए गए फैसला का चर्चा किया है।इस फैसला में सुप्रीम कोर्ट ने प्रधानमंत्री इंद्रा गांधी की हत्या के दिन 31 अक्टूबर 1984 को खालिस्तान जिन्दाबाद, राज करेगा खालसा के साथ हम पंजाब से हिन्दुओं को बाहर करेंगे,अब अपना शासन करने का बारी है,आदि नारे लगाने वाले आरोपियों को Public Order बाधित नहीं होने के कारण राजद्रोह के आरोप से बरी कर दिया।
In regard to JNU Case,i present three findings-
1.JNU Case और Balwant Singh Case में नारेबाजी Similar Nature और Similar Quantum Of Effect का है।
2.JNU Case में Public Order के बजाय Political Order प्रभावित हुई है।विरोधी छात्र संगठनों, विरोधी राजनीतिक पार्टियों और विरोधी विचारधाराओं के लोगों द्वारा आयोजन के दौरान और उसके बाद विरोध करना Public Order के बजाय Political Order प्रभावित होने का उदाहरण है।
3.पिछले स्टेटस में मैंने Federal Court Of India का Niharendu Dutt Mahumdar vs King-Emperor,(1942) FCR 38 और Supreme Court of India का Kedar Nath Singh vs The State of Bihar,AIR 1962 SC 955 में दिए गए फैसले के अनुसार Public Disorder by Violence पैदा करने की Tendency या Intention रखने वाले शब्दों,लेखनों या दृश्यरूपणों को राजद्रोह मानने के बजाय Supreme Court of the United States द्वारा Charlotte Anita Whitney vs People of the State of California,274 US 357(1927) में दिए गए फैसला के साथ Supreme Court of the United States द्वारा Clarence Brandenburg vs Ohio,395 US 444 (1969) में दिए गए फैसला और Supreme Court Of India द्वारा Dr Ramesh Yashwant Prabhoo vs Prabhakar Kashinath Kunte & Ors,1996(1) SCC 130,Shreya Singhal vs Union of India,Writ Petition(Criminal) No.167/2012 ,Indra Das vs State of Assam,(2011) 3 SCC 380 एवं Arup Bhuyan vs State of Assam,(2011) 3 SCC 377 में दिए गए फैसले का विवेचना करते हुए कहा है कि ऐसे शब्दों,लेखनों या दृश्यरूपणों को ही राजद्रोह (IPC की धारा 124A) या शब्दों,लेखनों या दृश्यरूपणों से पैदा होने वाले अन्य अपराधों (जैसे IPC की धारा 153A,धारा 295A आदि ) की श्रेणी में रखा जाना चाहिए जिसमें Immediate Public Disorder by Violence पैदा करने की Tendency या Intention हो और ऐसे शब्दों,लेखनों या दृश्यरूपणों के विरुद्ध ही Reasonable Restriction माना जा सकता है।Public Disorder और Immediate Public Disorder में अंतर स्थापित करना पड़ेगा।
Since there is no Public Disorder by Violence in JNU Case,so there is no question of Immediate Public Disorder by Violence.
In view of above three findings, i assert that Sedition Charge is not made out in present case in question.
विभिन्न स्त्रोतों से जानकारी मिली थी कि देश को टुकड़े टुकड़े करने और देश की बर्बादी तक जंग जारी रहने जैसे नारे भी लगाये गये थे,इसलिए पिछले स्टेटस में मैंने पाकिस्तान जिन्दाबाद वाला नारा को राजद्रोह का मामला नहीं बताकर टुकड़े टुकड़े करने और बर्बादी वाले नारा को Immediate Public Disorder by Violence पैदा करने की Tendency या Intention रखने वाला बताकर राजद्रोह का मामला बनाया था।लेकिन FIR Contents में टुकड़े टुकड़े करने और बर्बादी वाले नारा का जिक्र नहीं है,इसलिए राजद्रोह का भी मामला नहीं है।
FIR में वीडियो फूटेज के आधार पर उमर खालिद के नेतृत्व में नारेबाजी करने का जिक्र है।किसी के बयान के आधार पर उमर खालिद और कन्हैया कुमार,दोनों के नेतृत्व में नारेबाजी करने का जिक्र किया गया है।लेकिन वीडियो फूटेज के आधार पर कन्हैया का जिक्र नहीं है।चूँकि FIR Contents के अनुसार राजद्रोह का मामला बनता ही नहीं है इसलिए सिर्फ कन्हैया कुमार ही नहीं,उमर खालिद भी FIR के अनुसार राजद्रोह का दोषी नहीं है।
दिल्ली पुलिस ने FIR में राजद्रोह का धारा 124A IPC के साथ सामान्य आशय (Common Intention) को अग्रसर करने में कई व्यक्तियों द्वारा किए गए अपराध के लिए IPC का धारा 34 लगाया है।चूँकि राजद्रोह का अपराध नहीं बनता है इसलिए राजद्रोह का अपराध करने के लिए सामान्य आशय के साथ कई लोगों द्वारा शामिल होने के विरुद्ध IPC की धारा 34 का भी अपराध नहीं बनेगा।
हालाँकि दिल्ली पुलिस ने FIR में IPC की धारा 149 नहीं लगाया है लेकिन नारेबाजी में पाँच से ज्यादा लोग शामिल थे,इसलिए ये परखना पड़ेगा कि इसे विधि-विरुद्ध जमाव (Unlawful Assembly) की श्रेणी में रखा जायेगा या नहीं।सबसे पहले ये स्पष्ट करना जरुरी है कि IPC की धारा 149 के तहत विधि-विरुद्ध जमाव का प्रत्येक सदस्य द्वारा सामान्य उद्देश्य (Common Object) को अग्रसर करने के लिए किए गए अपराध का दोषी होने का यह मामला नहीं बनता है क्योंकि अपराध अथार्त राजद्रोह की ही नहीं गयी।
लेकिन IPC की धारा 143 के तहत विधि-विरुद्ध जमाव करना अपने आप में एक अपराध है जिसके विरुद्ध 6 महीने तक का कारावास का प्रावधान है।IPC की धारा 141 के तहत विधि-विरुद्ध जमाव का परिभाषा दिया गया है जिसमें अन्य बातों के साथ प्रावधान किया गया है कि
"पांच या अधिक व्यक्तियों का जमाव "विधि-विरुद्ध जमाव" कहा जाता है,यदि उन व्यक्तियों का,जिनसे वह जमाव गठित हुआ है, सामान्य उद्देश्य हो-
दूसरा-किसी विधि के,या किसी वैध आदेशिका के,निष्पादन का प्रतिरोध करना,अथवा
तीसरा-किसी रिष्टि या आपराधिक अतिचार या अन्य अपराध का करना।
चूँकि पोस्टर में ऐसा कुछ लिखा नहीं है जो राजद्रोह के अंतर्गत आता हो और आयोजन के दौरान की गयी नारेबाजी भी राजद्रोह के अंतर्गत नहीं आता है इसलिए अन्य अपराध (राजद्रोह) करने के सामान्य उद्देश्य से गठित हुआ जमाव नहीं माना जायेगा।अतः उक्त जमाव को विधि-विरुद्ध जमाव नहीं माना जायेगा।किसी विधि या वैध आदेशिका के निष्पादन का प्रतिरोध करने का यह मामला है ही नहीं क्योंकि अफजल गुरु को फाँसी दी जा चुकी है,इसलिए विधि और वैध आदेशिका का निष्पादन किया जा चुका है।यदि अफजल गुरु को अब फाँसी दी जाने वाली रहती और लोग इस तरह उसे फाँसी होने से बचाने के लिए विरोध करते तो इसे विधि और वैध आदेशिका के निष्पादन का प्रतिरोध करना माना जाता।
लेकिन सिर्फ विधि या वैध आदेशिका का प्रतिरोध करने के लिए गठित पाँच या पाँच से अधिक लोगों के जमाव को ही विधि-विरुद्ध जमाव नहीं माना जा सकता।भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19(1)(b) के तहत Freedom of Assembly (Right to protest peacefully and without arms) का मौलिक अधिकार प्राप्त है जिसके विरुद्ध अनुच्छेद 19(3) के तहत Public Order आदि के हित में Reasonable Restrictions लगाया जा सकता है।{Please also see the Judgments of the Supreme Court of India in the matter of Himat Lal vs Commissioner of Police,AIR 1973 SC 87 and Babulal Parate vs State of Maharashtra,AIR 1961 SC 884 pertaining to Reasonable Restrictions U/A 19(3) of the Constitution.}
Supreme Court of India ने ऊपर उल्लेखित Kedar Nath Singh Case,Shreya Singhal Case,Indra Das Case और Arup Bhuyan Case में संविधान का अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत प्रदत अभिव्यक्ति और भाषण की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार के विरुद्ध अनुच्छेद 19(2) के तहत Public Order के हित में Reasonable Restrictions वाले अभिव्यक्ति और भाषण को ही अपराध माना है।इससे आगे बढ़ते हुए Immediate Public Disorder पैदा करने की Tendency या Intention वाले अभिव्यक्ति और भाषण को ही अपराध माने जाने के पक्ष में विश्लेषण कर चुका हूँ।Similarly,अनुच्छेद 19(1)(b) के तहत प्रदत Freedom of Assembly (Right to Protest peacefully and without arms) के मौलिक अधिकार के विरुद्ध अनुच्छेद 19(3) के तहत Public Order के हित में Reasonable Restrictions वाले Assembly/Protest को ही अपराध माना जाए या इससे आगे बढ़ते हुए Immediate Public Disorder पैदा करने की Tendency या Intention वाले Assembly/Protest को ही अपराध माना जाए।किसी विधि या वैध आदेशिका के निष्पादन के प्रतिरोध के लिए पाँच या पाँच से अधिक लोगों के सामान्य उद्देश्य से गठित ऐसे जमाव को ही विधि-विरुद्ध जमाव माना जाए जिसमें Immediate Public Disorder पैदा करने की Intention या Tendency हो।
JNU मामले में अफजल गुरु के समर्थन में गठित जमाव से Public Order के बजाय Political Order प्रभावित हुई है।इसलिए JNU मामले के जमाव को विधि-विरुद्ध जमाव (Unlawful Assembly) नहीं कहा जा सकता है।अतः IPC की धारा 143 के तहत भी मामला नहीं बनता है।
ये विवेचना मैंने FIR Contents के आधार पर की है।यदि वास्तव में FIR Contents के अतिरिक्त अन्य नारे भी लगाये गए हैं तो उसपर ये विवेचना लागू नहीं होती।अन्य नारे लगाये जाने की अवस्था में पुनः विवेचना की जरुरत पड़ेगी कि राजद्रोह (IPC की धारा 124A) का अपराध बनता है या नहीं।यदि राजद्रोह का मामला बनता है तो सामान्य आशय (IPC की धारा 34) और सामान्य उद्देश्य (IPC की धारा 149) का मामला आयोजन स्थल पर उपस्थित नारेबाजी नहीं करने वाले छात्रों (जैसा कि कन्हैया कुमार के बारे में कहा जा रहा है कि वो उपस्थित थे लेकिन राजद्रोह वाली नारेबाजी नहीं की) के विरुद्ध बनता है या नहीं।अभी फिलहाल इतना ही।
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Manikant Mani Yes, I also thought like this
Rahul Kumar Rightly Thought #Manikant Bhaiji


SEDITION CHARGE AGAINST KANHAIYA KUMAR:A CRITICAL LEGAL APPRECIATION
ना मैं वामपंथी हूँ,ना ही दक्षिणपंथी।I am only a law abiding people who considers expedient to discuss on legal issues revolving around sedition charge against Kanhaiya Kumar.
1.DOCTRINE OF GUILT OF ASSOCIATION-दिल्ली पुलिस ने कन्हैया कुमार को हिरासत में लेने के लिए कोर्ट को जो कारण बताया था वो ये था कि पुलिस कन्हैया कुमार को हिरासत में लेकर जांच करना चाहती है कि कन्हैया का आतंकी संगठन से सम्बन्ध है या नहीं।Supreme Court Of the United States और Supreme Court Of India (Supreme Court Of the United States के फैसलों के आधार पर) ने अपने कुछ फैसलों में DOCTRINE OF GUILT OF ASSOCIATION की मान्यता नहीं दी है।अथार्त किसी व्यक्ति को सिर्फ इसलिए दोषी करार नहीं दिया जा सकता कि उसका किसी आतंकी संगठन से सम्बन्ध है,बशर्ते कि वह खुद आतंकी क्रियाकलाप में संलिप्त ना हो।इसी तरह से किसी Students Association के सदस्यों ने,चाहे हो AISF हो या ABVP हो या DSU हो,देश विरोधी नारेबाजी की और उस Association में कन्हैया कुमार भी शामिल थे तो सिर्फ इस आधार पर ही कन्हैया कुमार को दोषी करार नहीं दिया जा सकता।या उस वक्त अफजल गुरु के समर्थन में जो कार्यक्रम हो रही थी,उसमें शामिल होने भर से ही कन्हैया कुमार दोषी नहीं हो जाते।
संदर्भ-निम्न फैसलों को देखे-
1.Elfbrandt vs Russell,384 US 17 (1966) by the Supreme Court of the United States
2.United States vs Eugene Frank Robel,389 US 258 by the Supreme Court of the United States
3.State of Kerala vs Raneef,(2011) 1 SCC 784 by the Supreme Court of India
4.Indra Das vs State Of Assam,(2011) 3 SCC 380 by the Supreme Court of India
5.Arup Bhuyan vs State of Assam,(2011) 3 SCC 377 by the Supreme Court Of India
2.JUSTIFICATION OF ARREST-CrPC की धारा 41(1)(ba) को CrPC संशोधन अधिनियम,2010 की धारा 2 द्वारा जोड़ा गया जो दिनांक-02/11/2010 से प्रभाव में है।इस धारा में प्रावधान है कि सात साल से ज्यादा अपराध वाले धाराओं में गिरफ्तार तभी किया जायेगा जब पुलिस अधिकारी के पास विश्वास करने का कारण है कि आरोपी ने उक्त अपराध किया है।IPC की धारा 124A यानि राजद्रोह में आजीवन कारावास तक की सजा है।महज विरोधी छात्र संगठन (ABVP) और विरोधी राजनीतिक पार्टी (BJP) द्वारा राजद्रोह का मुकदमा कर दिए जाने से ही पुलिस अधिकारी के पास यह विश्वास करने का कारण नहीं हो सकता कि कन्हैया ने राजद्रोह का अपराध किया है,इसलिए गैर-कानूनी गिरफ्तारी हुई है।
DOCTRINE OF GUILT OF ASSOCIATION की भारतीय विधि-शास्त्र में मान्यता नहीं है।लेकिन यदि इस DOCTRINE को मान्यता दे भी दिया जाए,तब भी जब तक ये विश्वास करने का कारण ना हो कि कन्हैया का आंतकी संगठन से सम्बन्ध है तब तक गिरफ्तार नहीं किया जा सकता।ये पता करने के लिए कि कन्हैया का आतंकी संगठन से सम्बन्ध है या नहीं,गिरफ्तारी करना गैर-कानूनी है।इसके विपरीत सम्बन्ध होने के बारे में विशवास करने का कारण होने पर ही गिरफ्तारी होना चाहिए।
भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने Joginder Kumar vs State Of Uttarpradesh,1994 AIR 1349,1994 SCC (4) 260 में फैसला दिया है कि गिरफ्तारी का Justification होना चाहिए।कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी का कोई Justification नहीं दिखता क्योंकि आरोप को लेकर अभी पुलिस के पास विश्वास करने का कारण नहीं है जैसा कि CrPC की 41(1)(ba) का विवेचना करते हुए मैंने पहले ही कह दिया है।
3.जिंदाबाद, मुर्दाबाद राजद्रोह नहीं-भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने Balwant Singh & Anr vs State of Punjab,1995(1) SCR 411 में खालिस्तान जिंदाबाद,राज करेगा खालसा आदि नारे लगाने वाले दो आरोपियों को राजद्रोह के आरोप से मुक्त कर दिया।ये नारेबाजी प्रधानमंत्री इंद्रा गांधी की हत्या के दिन यानि 31 अक्टूबर 1984 को की गयी थी,उसके बावजूद कोर्ट ने कहा कि नारेबाजी से Public Order बाधित नहीं हुई, इसलिए राजद्रोह का मामला नहीं बनता।अतः JNU में पाकिस्तान जिंदाबाद का नारा लगाना राजद्रोह नहीं हो सकता।भारत को टुकड़ा टुकड़ा करने और भारत की बर्बादी तक जंग जारी रखने जैसे नारे लगाने के बारे में भी कहा जा रहा है।यदि ये नारे भी लगाये गए तो अब ये देखना है कि ये नारे राजद्रोह की श्रेणी में आयेंगे या नहीं।
4.WHICH WORDS AMOUNT TO SEDITION-Supreme Court Of India ने Kedar Nath Singh vs The State Of Bihar,1962 AIR SC 955 में ऐसे शब्दों को ही राजद्रोह की श्रेणी में रखा है जो अपराध को उकसाये या जिसमें Public Disorder को जन्म देने की Tendency या Intention हो।Federal Court Of India ने Niharendu Dutt Majumdar vs King-Emperor,(1942) FCR 38 में Kedar Nath Singh Case जैसा ही मंतव्य दिया है।वस्तुतः Niharendu Dutt Majumdar Case के आधार पर ही Kedar Nath Singh Case में फैसला दिया गया है।
Supreme Court Of India ने Ramji Lal Modi vs The State of Uttarpradesh,(1957) SCR 860 में ऐसे शब्दों को ही धार्मिक भावनाओं को आहत करने वाला (IPC की धारा 295-A के तहत अपराध) माना है जिसमें Public Order को Disrupt करने की Tendency हो।
सवाल अब यही है कि कैसे शब्दों,लेखनों या दृश्यरूपणों को भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत अभिव्यक्ति और भाषण की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार के दायरे में नहीं रखा जा सकता और संविधान का अनुच्छेद 19(2) के तहत कैसे शब्दों,लेखनों या दृश्यरूपणों पर Reasonable Restriction माना जाना चाहिए।विधि द्वारा स्थापित सरकार के प्रति घृणा या अवमान पैदा करने या पैदा करने का प्रयत्न करने या अप्रीति प्रदीप्त करने या प्रदीप्त करने का प्रयत्न करने वाले ऐसे शब्दों,लेखनों या दृश्यरूपणों को ही राजद्रोह की श्रेणी में रखा जा सकता है जिसपर संविधान का अनुच्छेद 19(2) के तहत Reasonable Restriction माना जाना चाहिए।
5.WHICH WORDS BE SUBJECTED TO REASONABLE RESTRICTION-Kedar Nath Singh Case और Niharendu Dutt Majumdar Case में Public Disorder पैदा करने की Tendency या Intention वाले शब्दों को राजद्रोह माना गया है।लेकिन कुछ फैसलो में Immediate Public Disorder पैदा करने की Tendency या Intention वाले शब्दों को ही अपराध माना गया है।
Supreme Court of the United States ने Charlotte Anita Whitney vs People of the State of California,274 US 357(1927) में राजद्रोह के समान एक मामले (Syndicalism) में Immediate Public Disorder वाले शब्दों को अपराध माना है।
See also below judgments pertaining to Immediate Public Disorder caused by words-
1.Clarence Brandenburg vs Ohio,395 US 444 (1969) by the Supreme Court of the United States
2.Dr Ramesh Yashwant Prabhoo vs Prabhakar Kashinath Kunte & Ors,1996(1) SCC 130 by the Supreme Court Of India
3.Shreya Singhal vs Union of India,Writ Petition(Criminal) No.167/2012 by the Supreme Court Of India
4.Indra Das vs State of Assam,(2011) 3 SCC 380 by the Supreme Court Of India
5.Arup Bhuyan vs State of Assam,(2011) 3 SCC 377 by the Supreme Court Of India
ऐसे शब्दों,लेखनों या दृश्यरूपणों को ही राजद्रोह या शब्दों,लेखनों या दृश्यरूपणों से पैदा होने वाले अन्य अपराधों (जैसे IPC की धारा 153A,धारा 295A आदि ) की श्रेणी में रखा जाना चाहिए जिसमें Immediate Public Disorder by Violence पैदा करने की Tendency या Intention हो और ऐसे शब्दों,लेखनों या दृश्यरूपणों के विरुद्ध ही Reasonable Restriction माना जा सकता है।Public Disorder और Immediate Public Disorder में अंतर स्थापित करना पड़ेगा।
6.SEDITION CHARGE IS MADE OUT IN PRESENT CASE-पाकिस्तान जिंदाबाद बोलना राजद्रोह नहीं है क्योंकि इस नारा में Public Order को Immediately disrupt करने की Tendency या Intention नहीं दिखती।लेकिन यदि किसी ने देश को टुकड़े टुकड़े करने और देश की बर्बादी तक जंग जारी रहने के बारे में बोला है तो इन नारों में Public Order को Immediately Disrupt करने की Tendency या Intention दिखती है,इसलिए इसमें राजद्रोह का मामला बनता है।
अब सवाल ये है कि इस केस में राजद्रोह का ये मामला बनता किसपर है और कन्हैया का गिरफ्तारी होना चाहिए था या नहीं।अभी कन्हैया के खिलाफ ये विश्वास करने का कारण नहीं है कि उन्होंने ही ये नारे लगाये,इसलिए उनका गिरफ्तारी गैर-कानूनी है।किसी की भी गिरफ्तारी जाँच करने के बाद उसके खिलाफ उक्त नारेबाजी (अपराध ) करने को लेकर विश्वास करने का कारण और Justification होने के बाद ही होना चाहिए।वैसे मेरा व्यक्तिगत तौर पर मानना है कि कन्हैया ने ये नारे लगाया ही नहीं।किसी और ने लगाया।
7.जिन शब्दों,लेखनों या दृश्यरूपणों में Immediate Public Disorder पैदा करने की Tendency या Intention है,वही राजद्रोह(IPC की धारा 124A) का अपराध हो सकता है या विभिन्न समूहों के बीच शत्रुता फैलाने ( IPC की धारा 153A) का अपराध हो सकता है या धार्मिक भावनाओं को आहत करने (IPC की धारा 295A) का अपराध हो सकता है,जैसा कि उपरोक्त चर्चा किया गया है।
Immediate Public Disorder पैदा करने की Tendency या Intention है या नहीं,इसका विश्लेषण Legal Mind ही कर सकते हैं।थाना में IPC की धारा 124A या 153A या 295A या इस तरह के किसी भी धारा के तहत मुकदमा दर्ज करने के लिए आवेदन देने के बाद थानेदार द्वारा आवेदन को अपने रिपोर्ट के साथ SP/DCP को अग्रसारित किया जाना चाहिए और SP/DCP को यदि लगता है कि Immediate Public Disorder के दायरे का आरोप है तो SP/DCP अपने रिपोर्ट के साथ Advisory Board को संदर्भित करेंगे और Advisory Board द्वारा अनुमोदित किये जाने के बाद ही SP/DCP FIR दर्ज करने का आदेश देंगे।इसी तरह से यदि मजिस्ट्रेट के कोर्ट में Complaint Case दायर किया जाता है और मजिस्ट्रेट को यदि लगता है कि Immediate Public Disorder के दायरे का आरोप है तो मजिस्ट्रेट अपने रिपोर्ट के साथ Advisory Board को संदर्भित करेंगे और Advisory Board द्वारा अनुमोदित किये जाने के बाद ही मजिस्ट्रेट मुकदमा पर सुनवाई प्रारंभ करेंगे।
राज्यस्तरीय तीन सदस्यीय स्थायी Advisory Board का गठन किया जायेगा जिसके अध्यक्ष और मेंबर्स सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट्स के सेवानिवृत्त जज होंगे।
CrPC में संशोधन करके IPC की धारा 124A या 153A या 295A या इस तरह के किसी भी धारा के तहत FIR दर्ज करने और Complaint Case पर सुनवाई प्रारंभ करने के लिए उपरोक्त प्रकियाओं को जोड़ा जाना चाहिए,तभी इन धाराओं के दुरूपयोग को रोका जा सकता है। इसके लिए ये भी जरुरी है कि IPC की धारा 124A,153A,295A और इस तरह के अन्य धाराओं में संशोधन करके एक Explanation जोड़ा जाए कि "Nothing is the offence under this section which don't have tendency or intention to create immediate public disorder by violence by words,either spoken or written,or by signs,or by visible representation,or otherwise."
वैसे यदि सरकार CrPC और IPC में उक्त संशोधन नहीं करती है तो सुप्रीम कोर्ट भी उपरोक्त प्रकियाओं व मानदंडों को सुनिश्चित करने के लिए दिशानिर्देश जारी कर सकती है।
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