कई बार कोर्ट के मजिस्ट्रेट,वकील और पुलिस
अधिकारी में जरुरी कानूनी जानकारी का भी अभाव पाया हूँ।कानूनी जानकारी के
अभाव में एक वकील को दूसरे वकील के खिलाफ किसी व्यक्ति को गलत सलाह देते और
एक पुलिस अधिकारी को दूसरे पुलिस अधिकारी के खिलाफ किसी व्यक्ति को गलत
सलाह देते पाया हूँ।गलत सलाह पाये व्यक्ति ने जब मुझसे सम्बन्धित
प्रावधानों के बारे में जानना चाहा तो मैंने प्रावधानों को उस गलत सलाह के
ठीक विपरीत पाया।
ऐसा ही दो केस प्रस्तुत है-
केस सं 1-एक व्यक्ति पर अधिकतम सात साल तक की सजा
वाली धारा में मुकदमा दर्ज किया गया था।पुलिस अधिकारी ने सीआरपीसी का धारा
41A के तहत नोटिस तामिल करके उस व्यक्ति को गिरफ्तार नहीं किया।फिर वरीय
पुलिस अधिकारी के पर्यवेक्षण रिपोर्ट के बाद उन्हें गिरफ्तार किया
गया।हालाँकि कोर्ट के मजिस्ट्रेट(CJM) ने सात साल तक की धारा वाले अपराध
में सीआरपीसी की धारा 41A के तहत पुलिस द्वारा नोटिस तामिल करके छोड़ दिए
जाने के आधार पर उस व्यक्ति को जेल भेजने से मना कर दिया कि ऐसी अवस्था में
जेल नहीं भेजा जा सकता।फिर कुछ वकील और एक पुलिस अधिकारी ने उस व्यक्ति को
सलाह दिया कि धारा 41A के तहत छोड़े जाने के कारण उन्हें गलत गिरफ्तार किया
गया था,इसलिए उन्हें गिरफ्तारी के खिलाफ केस करना चाहिए।
मेरा मंतव्य-सीआरपीसी की धारा 41A(3) के तहत नोटिस पर
छोड़े जाने और नोटिस के शर्त का अनुपालन करने के बावजूद गिरफ्तार किया जा
सकता है यदि गिरफ्तार करने का कारण मौजूद हो और उसे लेखबद्ध किया गया
हो।हालाँकि सीआरपीसी की धारा 41(1)(b)(ii) के तहत सात साल तक की सजा वाली
धारा में तभी गिरफ्तार किया जा सकता है जब पुलिस अधिकारी के पास किसी
व्यक्ति द्वारा अपराध करने के बारे में विश्वास करने का कारण होने के
साथ-साथ चेक लिस्ट में दिए गए कारणों में से किसी एक कारण के आधार पर
गिरफ्तार करना जरुरी हो।
इस केस में वरीय पुलिस अधिकारी का पर्यवेक्षण रिपोर्ट
जो लिखित में गिरफ्तारी का कारण व्यक्त कर रहा था,उस व्यक्ति को नोटिस पर
छोड़े जाने के बावजूद धारा 41A(3) के तहत गिरफ्तार करने के लिए विधि-सम्मत
था।लेकिन चेक लिस्ट बनाकर और चेक लिस्ट पर दर्ज कारणों में से किसी एक कारण
को अंकित कर कोर्ट नहीं भेजा गया जो गलत था।कोर्ट द्वारा धारा 41A के तहत
सात साल तक की सजा वाली धारा में नोटिस तामिल करके पुलिस द्वारा छोड़ दिए
जाने को आधार बनाने के बजाय पुलिस द्वारा चेक लिस्ट नहीं भेजने को आधार
बनाकर आरोपी को जेल भेजने से मना किया जाना चाहिए था।सुप्रीम कोर्ट ने
Arnesh Kumar vs State of Bihar & Anr,Criminal Appeal No.1277 of 2014,decided on 02/07/2014 के मामले में ठीक ऐसा ही निर्णय दिया है।
पर्यवेक्षण रिपोर्ट में गिरफ्तार करने के लिए गलत
तथ्य दर्शाये गए थे और चेक लिस्ट नहीं भेजा गया था।इन दो आधारों पर
गिरफ्तारी को चुनौती दिया जा सकता है ना कि इस आधार पर कि धारा 41A के तहत
पुलिस द्वारा छोड़ दिए जाने के कारण पुलिस द्वारा गिरफ्तारी की ही नहीं जा
सकती।
केस सं 2-एक आरोपी के जमानतदार(प्रतिभू) ने अपना बेल
बांड(बंध-पत्र) प्रभावमुक्त बनाने के लिए कोर्ट में आवेदन दिया।कोर्ट के
मजिस्ट्रेट ने प्रतिभू के वकील को कहा कि आरोपी को साथ में लेते आइए,फिर
उस प्रतिभू के बंध-पत्र को प्रभावमुक्त किया जायेगा।लेकिन उस वकील ने आरोपी
को इसकी सूचना तक नहीं दी।उस वकील द्वारा कोर्ट के आदेशानुसार आरोपी को
सूचना नहीं दिए जाने के कारण अन्य लोगों और कुछ वकील ने उस वकील को गलत
ठहराया और उन्हें कार्रवाई का हकदार बताया।आरोपी उस वकील के विरुद्ध स्टेट
बार कौंसिल में शिकायत दर्ज करना चाहते थे।
मेरा मंतव्य-जमानतदार(प्रतिभू) द्वारा अपना बेल
बांड(बंध-पत्र) प्रभावमुक्त बनाने के लिए आवेदन देने के मामले में उस
मजिस्ट्रेट ने वकील को गलत आदेश दिया है कि वकील आरोपी को कोर्ट में लेते
आये फिर उस प्रतिभू के बंध-पत्र को प्रभावमुक्त किया जायेगा।
CrPC का धारा 444(1) के तहत बंध-पत्र को
प्रभावमुक्त बनाने के लिए किसी प्रतिभू द्वारा आवेदन देने के बाद धारा
444(2) के तहत मजिस्ट्रेट सम्बंधित आरोपी, जिसका वो प्रतिभू था,को अपने
समक्ष हाजिर करने के लिए गिरफ्तारी वारंट जारी करेगा।धारा 444(3) के तहत उस
व्यक्ति का हाजिर होने के बाद मजिस्ट्रेट प्रतिभू के बंध-पत्र को
प्रभावमुक्त करेगा और आरोपी को दूसरा प्रतिभू देने कहेगा और प्रतिभू देने
में असमर्थ रहने पर आरोपी को जेल भेजा जायेगा।
अतः प्रावधानों से स्पष्ट है कि आरोपी को हाजिर कराने
का काम वकील का नहीं बल्कि मजिस्ट्रेट का है जो उसे गिरफ्तारी वारंट जारी
करके करना है।इसलिए वकील Advocates Act,1961
का धारा 35 के तहत Professional Misconduct का दोषी नहीं है।मजिस्ट्रेट ही
दोषी है जो विभागीय कार्रवाई के साथ-साथ IPC का धारा 166,217 और 219 के
तहत कार्रवाई का हकदार है।
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