Wednesday 1 March 2017

LAW VS PUBLIC INTEREST

LAW VS PUBLIC INTEREST
बाढ़ को रोकने के लिए जनहित को आधार बनाकर बगैर जमींन अधिग्रहण किये व भू-मुआवजा का भुगतान किये बगैर तटबंध निर्माण करने का क्या औचित्य है?
इस वर्ष जनवरी में जब सैकड़ों एकड़ खेत में मक्का का फसल कुछ बड़ी हो चुका थी,मेरे गाँव के 90 फीसदी से भी ज्यादा लोग,जिनकी जमींन का उपयोग तटबंध निर्माण के लिए नहीं किया जाना है,चाहते थे कि तटबंध बन जाए लेकिन कुछ प्रभावित किसानों के सहयोग से हमने तटबंध का निर्माण गाँव के लगभग 2 किलोमीटर लंबे क्षेत्र में होने नहीं दिया।इस प्रकार से सैकड़ों एकड़ का फसल काट कर फेंके जाने से बच गयी और सभी किसानों को मिलाकर एक करोड़ रूपये से ज्यादा का होने वाली नुकसान भी बच गयी।
जुलाई-अगस्त से लेकर अक्टूबर तक गाँव के खेतों,सड़कों पर रहने वाली बाढ़ अब भाग रही है और इस बार के रवि सीजन में फसल करने पर विचार करना है।इधर कार्यपालक अभियंता,बाढ़ नियंत्रण प्रमंडल-2,झंझारपुर द्वारा निर्गत किये गए चार पत्रों में एक समान बात कहा गया है कि प्रभावित किसानों के सहमति के उपरांत ही तटबंध का निर्माण किया जायेगा।पिछले रवि सीजन में माहौल को देखते हुए ये लोग सहमति लेने के लिये मेरे गाँव आये ही नहीं क्योंकि मेरे साथ चौदह किसान जिलाधिकारी और विशेष भू-अर्जन पदाधिकारी से गाँव से जिला मुख्यालय जाकर मिले थे। इस रवि सीजन में सहमति लेने के लिये ये लोग जरूर आयेंगे।गाँव के जो भी प्रभावित किसानों ने अभी तक मुझसे पुछा है,उन्हें मैंने सहमति नहीं देने और फसल करने के लिए कह दिया है।
ये 90 फीसदी से ज्यादा लोग तटबंध नहीं बनने के लिये हमें दोषी मानते हैं।लेकिन दोषी हम नहीं,बिहार सरकार है।जब बिहार सरकार को बाढ़ रोकने की इतनी ही चिंता है तो पहले भू-अर्जन करके मुआवजा दे देना चाहिए था ताकि तटबंध निर्माण का विरोध ही ना हो।पूरे प्रोजेक्ट के लिए भू-मुआवजा का लागत 167 करोड़ रूपये हैं लेकिन बाढ़ नियंत्रण प्रमंडल-2 ने विशेष भू-अर्जन कार्यालय में मात्र 20 करोड़ रूपये जमा किया है।इसलिए जब तक बाकी का 147 करोड़ रूपये जमा नहीं की जाती है,तब तक भू-अर्जन करके मुआवजा देना संभव नहीं है।

कुछ लोग ऐसे हैं जिनकी पूरी जमींन तटबंध में चली जायेगी और कुछ लोग ऐसे हैं जिनकी जमींन तटबंध में जाने के बाद काफी कम जमींन उनके पास बचेगी और उन्हें अभी मुआवजा भी नहीं मिलने वाला है।बगैर मुआवजा दिये अभी तटबंध बनने के बाद ऐसे लोगों के साथ क्या होगा?ऐसे लोगों को भूखे मरने या मजदूरी करने के लिए छोड़ दिया जाए?
जब कानून में प्रावधान है कि बगैर जमींन अधिग्रहण किये व मुआवजा दिये बगैर किसी का जमींन नहीं लिया जा सकता,इसलिए जनहित के नाम पर कानून के साथ समझौता नहीं हो सकता।पूर्णतया सरकारी प्रोजेक्ट में किसानों से सहमति लेने का तो कोई प्रावधान ही नहीं है।आप मुआवजा दीजिये और जबरदस्ती जमींन ले लीजिये,ये प्रावधान है।वैसे भी सहमति महज एक नाटक है।पूर्व में जिन भी गॉँवों में तटबंध बनाया गया है,वहाँ सहमति लिया ही नहीं गया है।स्थानीय दबंग नेताओं को खड़ा करके और उन्हें सब-कांट्रेक्टर बनाकर तटबंध बना लिया और किसानों ने इन नेताओं,पदाधिकारियों के भय,अपना पक्ष रखने में जानकारी व संवाद-कुशलता का अभाव और विरोध करने पर जेल भेज दिये जाने का डर होने के कारण कुछ नहीं बोला तो उसे ही इन्होंने सहमति बना दिया।
मैं आशंकित हूँ कि कहीं मेरे गाँव के किसान भी भय के कारण कुछ बोले ही नहीं और सहमति दे दे और इसी का फायदा उठाकर कहीं तटबंध बना ना ले।कोशिश करता हूँ कि मेरे द्वारा पटना उच्च न्यायालय में दायर CWJC No.7529/2016 को मेंशन करने के बाद अर्जेंट सुनवाई चालू हो जाये।यदि सुनवाई चालू नहीं होती है तो तटबंध का निर्माण किसानों के सहमति पर निर्भर करेगी।
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